
जड़ों में खोजता पानी और जीवन का स्पंदन~सुरेन्द्र प्रजापति, बोधगया

जड़ों में खोजता पानी और जीवन का स्पंदन
~सुरेन्द्र प्रजापति
मैं इन दिनों एक कोमल, हरित तल, नरम, नाजुक मुलायम पर्ण का सहयात्री हूँ । चौंकिए मत; दरअसल बात कर रहा हूँ, मराठी भाषा के चर्चित कवि, लेखक, संजय बोरुडे की; जो हिंदी भाषा के अच्छे जानकार हैं ।
प्रत्यक्षतः उनका हिंदी में पहला कविता संग्रह ‘पर्णसूक्त‘ न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित होकर आया है । संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए मुझे महसूस हुआ कि एक मराठी भाषी संजय बोरुडे साधिकार हिंदी में भी विलक्षण साहित्य रच सकते हैं । उनकी सरल भाषा, उनकी शैली, उनका अपना मुहावरा, बिम्बों और प्रतिकों के माध्यम से आसाधारण हिंदी साहित्य की रचना कर देना; कितना श्रम साध्य काम है; इसका जीता जागता प्रमाण है कवि का कविता संग्रह । मुझे आज तक हिंदी साहित्य पढ़ते हुए (चुंकि हिंदी साहित्य बहुत कम पढ़ा हूँ । ) मेरी जानकारी में पर्ण (पते) पर एक पुरी पुस्तक का सृजन कर देना शायद ही मिलेगा।
डा. संजय बोरुडे का कविता संग्रह पर्णसूक्त पूरी तरह पर्यावरणीय कोमलता से आक्षादित ऋतुएँ, उसका जीवन-चक्र का विस्तृत हस्ताक्षर है; जो अपनी अमलता, नयापन, नैसर्गिकता, अस्तित्व के सुंदर रुपकों से परिचय करवाते हैं । पर्ण के माध्यम से ही जीवन से संवाद करने का भरसक प्रयास करते हैं और उसमें सफल भी होते हैं । कवि, शुरुआत में ही इंसान के बौद्धिक विवेक और धैर्य का पड़ताल करते हुए लिखता है:-
इतना
आसान
नहीं होता;
पतों को समझना..
बर्दाश्तगी की
पराकाष्ठा से
ढूंढना पड़ता है
हरियाली का तल.. ।
यहाँ कवि हरियाली के तल के बहाने जीवन को सुंदर, सहज और सार्थक बनाने के लिए उस मार्ग में आनेवाली बाधाओं की बात करता है, जो इतना आसान नही है । इसके लिए असीमित धैर्य और धैर्य का ताप देना पड़ता है । तब कहीं जाकर पर्ण का विकास हो पाता है ।
इस संकलन की भूमिका लिखते हुए कवि उपन्यासकार विमलेश त्रिपाठी जी इसी ताप को कविता का ताप बतलाए हैं । वे मानते हैं कि स्थूल से निकलकर सूक्ष्मता की ओर चल पड़ना; वही कहीं कविता का ताप मिलता है । ईसी ताप का मशाल जलाये कवि उस उर्वर धरातल पर उतरना चाहता है, जहां उम्मीद की हरियाली हर विषमता को पाट देता है । कवि अपनी कविताओं के बहाने मानव के स्वभाव को बहुत चतुराई के साथ रेखांकित करता है:-
पत्ते
चाहे
जैसे भी हो;
सादे, संयुक्त,
नुकिले,
या गोल..
वे कभी
बजाते नहीं
विषमता के ढोल..
प्रकृति कभी विषमता का ढोल नहीं पीटती , न किसी से किसी प्रकार का भेदभाव करती है ।
कवि इन पंक्तियों के माध्यम से बहुत ही बौद्धिकतपूर्ण बातें कहता है । कवि की समझ और देखने का दृष्टिकोण यहाँ पर जीवन के समृद्ध इतिहास की ओर संकेत करता है । साथ ही लोक को सावधान करता है । आज जब कि इतिहास को अधिकाधिक और विविध प्रकार से लिखा-पढ़ा जा रहा है । समृद्ध जीवन वही है; जिसमें जीवन का सौंदर्य ह; समाजिक और बौद्धिक चेतना हो; किसी जीव विशेष को मारकर, या नष्ट कर हम उसका पूर्ण इतिहास लिख ही नहीं सकते । फिर तो वह घटना लिखते हैं, हिंसा लिखते हैं, घृणित दस्तावेज लिखते हैं, या नरसंहार लिखते हैं ।
इस संग्रह कि कविताओं में पर्ण की कोमलता है, तो संवेदना की गहन अनुभूति भी । जिसे आत्मा की आँखों से देखने की जरूरत है । जहाँ जीवन के विविध रंग, खिलखिलाती खुशियाँ, मचलते शिशु का वात्सल्य लिये धीरे से झंकृत भर कर देती है । इन पंक्तियों का संदर्भ देखिए:-
डा. बोस ने
कहा था,
पत्तों को भी
संवेदना है ।
उनसे बात करो
तो वे खिलते हैं;
हमारी खुशी से
वे डोलते हैं।
मेरी जानकारी में शायद हिंदी साहित्य में यह पहला कविता संकलन है; जो पुरी तरह प्रकृति के सबसे कोमल और चंचल पर्ण (पत्ते) को माध्यम बना कर लिखा गया है । पत्ते के माध्यम से ही कवि मानव जीवन के हर पहलू को हल्के से स्पर्श कर देता है और ये स्पर्श विविध रंगो में आयातीत है. सुख दुःख, स्वभाव, विवेक से लेकर इंसान के छल विच्छोह, उछाह को भी बड़े ही रुमानियत तरीके से दर्ज करता है । इसमें समानता की बात करता है; विषमता की बात करता है.;कहीं कहीं तो इनकी पंक्तियाँ एकदम से दार्शनिक हो जाती है । संदर्भ देखिए:-
पत्ते
हमेशा
जियो और जीने दो का
नारा लगाते हैं ;
क्या कोई आदमी
इससे
कोई सीखेगा भी ..?
इन पंक्तियों के माध्यम से जैसे कवि सामाजिक विषमताओं पर सवाल खड़ा करते हुए इंसान को उसके मानवीय गुणों को याद दिलाता है ।
एक और संदर्भ देखिए :-
सूरज की
प्रकाश पाने के लिए
पत्तों को
न किसी बिचौलिए की
जरूरत
होती है;
न किसी
जमानत की ।
इन पंक्तियों के माध्यम से कवि आज के इंसान के चरित्र को खोलता है । आज का इंसान अपने स्वार्थ के लिए या पद प्रतिष्ठा के लिए, या निजी लाभ के लिए, बिचौलिए का सहारा लेता है ।
कर्पोरेटिव होते जा रहे साहित्य और साहित्य में अपनी प्रसिद्धि स्थापित करने की ललक और साहित्य में हो रहे गुटबाजी पर कवि की पैनी नजर है । अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे ऐसे साहित्यकार, लेखक, कवि पर वे व्यंग्यात्मक लहजे में निशाना साधते हैं; जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के ब्याज में साहित्य के मूल्य को भी कम करने में लगे हैं । समाज में जिन वंचित लोगों की आवाज,उनकी दयनीय पीड़ा, उनका श्रम दर्ज होना चाहिए;वो कविता से जैसे गुम होती जा रही है । इस उपक्रम में कवि चिंतित है । उन्हे चिंता है कि इस तरह के व्याप्त विचार और गुटबाजी के बदौलत ही साहित्य जन साधारण लोगों की विश्वसनीयता खोती जा रही है । अपनी इसी चिंता को कवि ने इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया है :-
कविता
बनाना
हमने
छोड़
दिया है;
आपकी
साहित्य की
परिकल्पना
को देखकर..
आपकी
गुटबाजी से
परेशान होकर..
कवि का यह मानना कि अलिखित में ही विविध कविताएं हैं । विविध रंग जो, और विविध तेवर जैसे अलिखित में कहानी का सम्पूर्ण होता है । वास्तव में जो कविता लिखते हैं, उसे पढ़ते हैं लेकिन जो नहीं लिखा गया उसमें जीते है । उसी में विराट जीवन का उत्स होता है । वहीं है जीवन का स्पंदन, संचरण, और अनुभूति का संचार । शायद इसी बात को यहाँ कवि सार्थक करते हुए दिखते हैं:-

जरा
आँखे खोलकर
देखोगे,
तो पता
चलेगा
हमारा
हर पर्ण
एक
कविता है…।
यह सर्वमान्य है कि बदलाव जीवन, परिवेश और समाज के लिए महत है और अनिवार्य भी कविता और साहित्य के लिए भी, रचनात्मक परिपेक्ष्य में भी । क्या यही बदलाव हमारे बौद्धिक और शैक्षणिक संगठनों के लिए भी जरूरी है ? कवि अपने इसी चिंता को पंक्तिवध करता है, साथ ही इन शैक्षणिक सिस्टम पर व्यंग करता है, उसके अनैतिक कार्यकलाप को दर्ज कर उस सिस्टम में हो रहे गोरखधंधे को उजागर करता है । संदर्भ देखिए:-
कृषि
विश्वविद्यालयों में
उपजी
नई प्रजाति से
नहीं
पैदा हुए हैं हम..
जल निकास
मिट्टी में
बिखरी
हमारी जड़े
खोजती है
चमकता पानी..।
कविता संग्रह ‘पर्णसूक्त‘ की कविताओं में कवि रुपकों, प्रतिकों, और बिम्बों को इतनी बारीकी से पिरोता है कि एक-एक पंक्तियाँ सरल सुबोध होते हुए भी असाधारण और सुंदर बन जाती है । इन कविताओं में दर्शन है, भूगोल है, वनस्पति है, और इतिहासबोध भी । एक प्रयोग देखिए:-
पर्ण को
टालकर
नहीं
लिखा जा
सकता
किसी भी
वृक्ष का
इतिहास..।
प्रस्तुत पंक्तियों में इतिहास लिखे जाने की माकुल और आवश्यक संसाधनों अनिवार्यता की ओर इशारा है । इतिहास किसका लिखा जाता है, जीवन है…! लेकिन जिस जीवन में अध्यात्म न हो, जिसमें जीव मात्र का गूंज न हो, जिसमें कोई रसायन न हो, निःसंदेह मृतकाय वस्तुओं का इतिहास नहीं लिखा जाता है । वैसे ही बिना पर्ण का कोई वृक्ष की वंसावली पनप ही नहीं सकती. पर्ण ही उसका जीवन है, सांस है उसकी प्रगति है । एक और बिम्ब देखिए:-
पतों को
गिरवी
रखने से
कोई वृक्ष
महान
नहीं होता.. ।
जैसे उधार की खुशी नहीं होती न उधार का जीवन. इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने जीवन की खूबसूरती का मोहक तस्वीर प्रस्तुत किया है । जीवन को सुखमय बनाने के लिए प्यार चाहिए, चीजों को परखने की समझ चाहिए, संवेदना से सिंचित और सौंदर्य से प्लावित, कुशल विवेक चाहिए; जैसे एक सुहागन का संसार तभी सार्थक हुए अलौकिक है, जब उसका सुहाग है ।
कवि के इस संकलन की सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जीवन जगत के महत जितनी विवेचना और उसके उर्वर धरातल की विशेषताओं का वर्णन किया गया है । वे सभी आवश्यक बातें – पतों, तनो, जड़ों को रुपक और प्रतिकों के माध्यम से स्थापित किया है । प्रेम, प्रेम की सार्थकता, संयोग, वियोग, विमर्श छोटी छोटी कविताओं में वे बड़ी सहजता से शब्दों का सम्मोहन रचता है । यहीं सम्मोहन और शिल्पगत भव्यता इस संकलन की खूबसूरती है, तो आइये इस खूबसूरती में क्यों न उतरा जाये? जहाँ छोटी छोटी पंक्तियाँ आपको जादुई स्पर्श कराते हुए, पूरे कविता यात्रा की सैर करवायेगी ।
हिन्दी कविता में संभावनाशील कवि संजय बोरुडे जी का में स्वागत करता हूँ । कवि को अनंत शुभकामनाएँ और बधाई ।
@सुरेन्द्र प्रजापति, बोधगया, संपर्क सूत्र : 90062 48245

ज्यांच्या कविता वाचून प्रत्यक्ष यशवंतराव चव्हाण यांनी या ज्येष्ठ कवीला पत्र पाठवले होते; असे जुन्या पिढीतील महत्त्वाचे कवी वसंत मुरदारे यांचा कवितासंग्रह लवकरच येत आहे.