2024 Hindi kavita ऑगस्ट

उत्तम कोलगावकर : चंद कवितायें

सा हि त्या क्ष र 

परिचय :

उत्तम कोलगावकर मराठी के एक सशक्त कवि है । उनकी कविता प्राय : भाष्यकविता की रूप में सामने आती है । आकाशवाणी में एक अफसर के रूप मे सेवापूर्ति कर वे आजकल नासिक में निवृत्त जीवन जी रहे है । ‘ जंगलझडी ‘ ,”तळपाणी ‘ , ‘ कालांतर ‘ आदि कविता संग्रह उनके नाम पर है । प्रस्तुत है उनकी डॉ संजय बोरुडे द्वारा अनुदित चंद कवितायें ।

१. आजकल

आजकल हर रोज
कुछ ना कुछ होता रहता है ।

कहीं पे तू तू -मैं मैं , कहीं पे हाथापाई ,
कहीं पे लूट-पाट, कहीं पे चोरी-डकैती,
कहीं पे आगज़नी
तो कहीं पे गोलियाँ ।

कहीं पे हादसा तो कहीं पे घातपात,
कहीं पे अत्याचार,अनाचार
तो कहीं पे बलात्कार,
कहीं पे पथराव तो कहीं पे भगदड़
कहीं पे हत्या तो कहीं पे बम विस्फोट
कुछ ऐसाही घटता रहता है रोज ।

हर पल दिन जैसे सिहरता है,
खून से लथपथ होता है ।
आदमी को घर से बाहर
कदम रखने को भी ड़र लगता है ।
मानो , बाहर कोई आतंक
घात लगाकर बैठा हो ।

रात को तो नींद भी नहीं आती
और आती भी है तो
सुबह उठ पाने की आशंका
बनी रहती है ,
आजकल ।

***

. कैद

ये बात सच है,
हमारे गले में कोई रस्सी नहीं
और हमारे लिये बहुत सारा
चारापानी भी उपलब्ध है ।

ये सत्य है कि
हम घूम सकते है, चल सकते है ,
या कूद सकते है ,
छाँव में बैठ सकते है ,
थकने पर सो सकते है .. ।

लेकिन जरा सी दूरीपर
हमारे आसपास
एक मजबूत बाड़,
जिसके दरवाजे पर
बड़ा सा ताला
और हम कैद हुये है अंदर ।
अब सवाल ये है कि
कितने लोग
इस सच्चाई से
वाकिफ़ है ?


३. ज़रा सा अनाज

ये खयाल बाद का है
कि हमारे हिस्से में
कोई अनाज बचेगा या नहीं
लेकिन पहले बोना तो जरूरी है ।

बोने से उग आयेगा
और उगने से
उन में भुट्टे भी लगेंगे ।
अगर उन्हें हम ना खाये
बल्कि पंछी खा जाये
तो क्या हर्ज है ?

और पंछी इतने भी मतलबी नहीं होते ।
वें कुछ अनाज बचा रखते है पीछे ,
हमारे लिये ।

खेत की सूखन बटोरने से
ज्यादा बेहतर है
इस जरा से बचे हुये
अनाज को बटोरना ।
क्या कहते है ?


४. गडरिया

तेरे हाथ में
सोने के घुंगरू लगवाकर
एक लाठी थमा दी ।
और फिर तुम्हें सौंप दिया
एक हराभरा चरागाह ,
रहने के लिये एक बाड़ा
और घूमने के लिये घोडा ।

बाद में तू
पूरी लगन से
रखवाली करने लगा
अपने आप
सभी भेड़ों की ।
अब तू कितना होशियार
रहता है कि कहीं
झुंड से अलग कोई
भेड़ तितर बितर तो नहीं
हो रहा है ?
आखिर भेड़ तो भेड़ ही ठहरे ;
जो तेरी आज्ञा से चलते है ,
चरते भी है ।

तुम पर और तुम्हारे
भेड़ों पर
वें बारीकी से
निगाह रखते हैं उपर से
और निश्चित समय पर
आकर तुम्हारे भेड़ों की
सब ऊन कतराकर ले जाते हैं ।
तू भी अब आदी हो गया है :
बीच बीच में
भेड़ों को इकट्ठा करके
अपने मालिक को देता है
भेड़ों का पूरा हिसाब
और लगवा लेते हो
निष्ठा की मुहर .. बार बार ।

लगता है,
तुम्हारे अंदर के भेड़ को
गडरिया में तब्दील करने का
उनका षड्यंत्र
आज कामयाब हो गया है ।

अब हाथ की लाठी फेंककर,
हाथ उठाकर ,
आसमान हिला देनेवाली
ललकार
कब गूँजेगी ,
इसी प्रतीक्षा में है
पूरा खेत – खलिहान ।


५. रोटी का चित्र

पीठ से पेट चिपके
लोगों का झुंड निकलकर
उसके दरवाजे तक आ पहुंचता है
और अपना मुँह खोलता है-
” माईबाप, रोटी चाहिये रोटी “

वह बिल्कुल शांत
झुंड के सामने आता है :
झुंड धूप में ,
वह छाँव में ।

छाँव में खड़ा होकर
वह पूरे आवेश के साथ
लंबा चौडा भाषण झाड़ने लगा :
झुंड को रोटी मिलने की योजना
समझाने लगा
और बोलते बोलते उसने
झुंड के सामने फैलाया
एक गर्म रोटी का
बड़ा चित्र ।
अब चित्र से रोटी
निकलकर बाहर आयेगी
ये सोचकर
झुंड लौट जाता है ।

अब भी
पीठ से पेट चिपके लोगों का झुंड
उसके पास आता है
तो वह हर बार
उनके सामने
फैलाता है
रोटी का चित्र


६. आज कुछ हुआ ही नहीं

आज कुछ हुआ ही नहीं :
दिन कितना सीधा
किसी सूत- सा सरल ।
एक भी झुर्री नहीं पड़ी
दिन के चेहरे पर ।

आज दिनभर
सामने पेड पर पंछी
चहचहा रहे थे ।
लेकिन एक बार भी
पेड़ पर उनका
कोई हंगामा नहीं हुआ ।
आज एक बार भी
कोई नाग पंछियों के
घोंसले की तरफ नहीं बढ़ा ।

आज पवन ने
चक्रवात सा कोई
तुफान नहीं खड़ा किया
और न ही किसी पेड़ को
जड़ से उखाड़ दिया है,
न ही किसी झोंपडे के
छत उछाल दिया
किसी टोपी की तरह ।
आज पवन ने बिल्कुल
अच्छे , सयाने आदमी की तरह
बर्ताव किया ।
चावल के खेतों पर
लहराता रहा धीरे – धीरे ।

आज दिनभर दुख
थका-मांदा सोता रहा
और आज दिनभर
मेरी आंखें सूखती रही ।

***

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