सुरेंद प्रजापति की कवितायें
परिचय : सुरेद्र प्रजापति जो कि एक किसान कवि है और गया के पास के एक देहात में रहकर खेती करते है। हाल ही मे उनसे मेरी मुलाकात कोलकाता में हुई । उनकी कवितायें किसान और कृषिपरम्परा को एक अलग अंदाज से देखने को मजबूर करती हैं। साहित्याक्षर के पाठक उनकी रचनायें पढ़कर ज़रुर प्रतिक्रियाएँ दे ।
१.वह स्त्री
सुप से अनाज फटकती हुई स्त्री
टसर-टसर आँसू बहाती हुई
अपने आक्षेप अवरोध को भी फटक रही है
अपने मरद के घिनौने डराते और
धमकाते हुए गाली गलौज से अभिशप्त
पटाई हुई, लात से लतीआई हुई
साधिकार अपने अस्तित्व में घटाई हुई
आँसुओं में संताप को गटक रही है।
वह कंकड़ बीनती स्त्री
वह परिवार को पलकों पर उठाए सवांरती
भुगत रही अपनी प्रत्येक यातना को
कूड़ा के साथ बुहारती
कितनी लाचार पर ईमानदार है
किन्तु उसके सास ससुर पर, परिवार पर
उसके निक्कमे और आवारा मरद पर
कोई आँख दिखाए तब
कितनी धारदार हो जाती है
तीखे वाक्यों से करती हुई प्रहार
बार-बार, बार-बार
वह अपनी संवेदना में बहकती स्त्री
पुरुष भोजन करके जूठन छोड़ता है
स्त्री उससे तृप्त होकर अघाती है
पुरुष पानी में मेल धोता है
स्त्री उसे धारण कर हरियाती है
गाती है बासन्ती गीत
कितनी बावरी है, छबीली है, गर्वीली है वह स्त्री
काम में दुर्भावना के शील पर पिसती हुई
समर्पण के सिलहट पर घिसती हुई
कितनी कितनी समझदार है
वह साधिकार बोले तो बेअकल
खुलकर हँसे तो बद्जात
रोये तो बेवाहियात
कितनी कितनी उपहासों को
सहती, मचलती, कुहकती
फिर भी स्वयं को मिटा देने की जिद्द पर
प्रेम का कनक विस्तार है वह स्त्री
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२.लौटती हुई औरतें
अब नदियों ने
बदल दिया है अपना रास्ता
अब उसमें वो शक्ति नहीं
जो मिट्टी को संजीवनी दे सके
आपने सीने पर ढो सके उर्वरता
बंजरो में लड़खड़ाती हुई नदी
बर्फ़ नहाई प्रभात को
अपनी भाषा के शब्दकोष में दर्ज कर रही है
और समय की सबसे कोमल कविता
कठोर चट्टानों से टकराकर चूर-चूर हो बिखर रही है
सूरज की किरणों में
अब कैद नहीं रही रुमानियत
न बैलों के गले में घंटी की आवाज
न पतियों में वृक्षों का बचपन
न फूलों से सुरभित मन
मिट्टी अब नहीं ढोती वृक्षों का भार
स्त्रियाँ अपने हाथों से
समय की कठोर परतों को
कुरेद रही है और सी रही है
उसके नाजुक तन ने
सिख ली है समय की ताप पर तपना
जीवन के समतल पर
उकेर रही है पावों की अक्षरमालाएँ
कई-कई हाथ, कई संवाद मिलकर
बना रही है, संघर्ष की कलाकृति
अनगढ़ शिल्प
रच रही है जीवन की कविता
और कविता रच रही है
स्त्रियों के मौन संघर्ष को
जो कैद है परम्परा की दिवारों में
काम से लौटती हुई स्त्रियाँ
टकटकी लगाकर
अपने पैरों की फ़टी विवाई को देखती है
देखती है बदशक्ल नाखुनों जो
उलझी हुई सिसकती लटो को
अंगूठे का निशान पत्थरों पर निहारती है
देखती है तपति धरती पर फ़टी हुई सुस्ख दरारों को
धरती और आसमान के बीच से
एक टुकड़ा आकाश
सहेजती है स्त्रियाँ धैर्य को रांधती है
जहाँ एक नन्हें पौधे के साथ
दुब के समानांतर सपने उग आए हैं
अनंत सपनों में जीती
संभावनाओं में जागती
स्मृति के दर्पण में
अपने गाढ़े दिन को सजा रही है स्त्रियाँ
फिसलते समय को
गीली मिट्टी की तरह गूंथती
अपने हाथों में पुरुषवाद का महावर
गोबर से पोत ली है स्त्रियाँ
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३.उम्मीद की टहनी
धीरे-धीरे हम बढ़ रहे हैं गंतव्य की ओर
लेकिन आशा के विपरीत हमारी उपस्थिति को
अनदेखा कर दिया जा रहा है
स्वयं को नकारा जाना,
जीवन से भटक जाना है
फिर हम जाकर भी कहाँ जा रहे हैं?
समंदर में भी बून्द कहाँ पा रहे हैं?
उर्वर पर रेगिस्तान फैल रहा है
सीने पर एक सुरज उग आया है
सुबक रही है व्यथा की दारुण दशा
चन्द्रमा से उतरकर अंधेरे में टहल रही है
उम्मीद की टहनियाँ
हो रहा है वेदना का विस्तार
अभिलाषा तार-तार
विचार पर पहरा है
अभिव्यक्ति छूट रहा है
पकड़ से धीरे-धीरे
बहुत धीरे-धीरे सारे तर्क
स्वर्ग को लूट रहा है।
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४.बंदी मुलाक़ात
कतारवद्ध खड़ा मै
टकटकी लगाए
विशाल लौह दरवाजे को देखता हूँ
उसके खुलते ही कुछ प्रकाश चमका
उस प्रकाश में अनगिनत चेहरे
कुछ में उमंग, कुछ में उत्साह,
कुछ में व्य्था-विनित चित्कार
मैनें उसे देखा
चेहरे पर व्याकुलता
मेरी नजरें फिसलती हुई
उसके आँखों के समंदर में खो गया
आँखों की कातरता, आँसुओं में तैरने लगी
चेहरे पर व्याप्त उदासीनता
होंठों पर आकर ठहर गई
कुछ आँसुओं की बुँदे
मलीन कपोलों पर लुढ़क गए
कंठ से एक टूटती हुई आवाज निकली
“कब आओगे”
और कुछ शब्दों को आँसुओं ने कह दिया
जहाँ दर्द था, पीड़ा की कहानी थी
घर गृहस्थी का बोझ था
जिम्मेवारियों का वचन था
मै निरुतर था क्या कहता
उस गरीब पल में मेरे पास
कोई शब्द शेष न था
जिसे साझा कर
उसके वेदना को कम करता
वैसा कोई अवशेष न था
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५ .मेरी पूजा से छुटहि पाप क्यों…
पवित्र कहे जाने वाले श्लोक की भाषा
उसके घिनौने लगने वाले तर्कों का
कभी कोई मेल नहीं हुआ
जिसके लिए मनुस्मृति का मंत्र सुनना पाप है
उसने कहा और बार-बार घृणा किया
कि पूर्व जन्म का कुकर्म ही
इस जन्म में तुम्हे नीच कुल का बनाया
और पापी पेट मे पैदा हुआ
गंदी गालियों का नश्तर झेला
अब क्षुद्र हो तो, देवता का अपमान न करो
पतित हो तो देवी का गुणगान न करो
तुम्हारे लिए नर्क ही श्रेयकर है
दलित पैरों से परिसर को मत रौंदो
तुम्हारे जिंदगी में अभिशाप ही बेहतर है
वह बेगार ढोता हुआ
अपनी पीठ पर ग्लानि के
चुभोये गये बिभत्स पीड़ा
गाली-ग्लौज के बहते सदांध को
झेलता, संवेदना को तलाशता
खुद से घृणा करता, अपनों से भागता
जब-तब चौंकता है।
कि मेरा संघर्ष मंदिर की भव्यता है
कला की समृद्धि है
तो मेरी पुजा से छुतहि पाप क्यों?
बताओ, सत्ता पर आसीन आकाओं
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६. हम मरकर भी जी उठेंगे बार-बार
जो दीन-हीन-मलीन हैं
जिसके स्पर्श से
वस्तु, स्थान, घटनाएँ
अमंगल हो जाती है,
उसकी शुद्धता गंगाजल से
या मंत्रोचार से पवित्र की जाती है
निहायत ही वह इंसान नहीं हो सकता
बल्कि समय के सरोवर में
भिन्नाता एक घटिया वस्तु है।
हाँ! बर्बरता के चाबुक से पीटता
एक चीखता, चिल्लाता जीव
भोग के इस्तेमाल के लिए
एक नियत दिनचर्चा
उसके सरोकार और अधिकार को किसने
और किस काल में समझा गया
जबकि, घृणा और तिरस्कार ही उसका वाहक है।
कहते हैं, प्रेम बचेंगे, संबंध बचेंगे,
तभी जीवन बचेंगे,
इंसानियत के फुल खिलेंगे,
लेकिन ये स्वर्ण और अवर्ण की नस्लें
कभी संबंधों का पुल बनने दिया?
आदिकाल से आजतक।
घुड़की, थप्पड़, चीखती हुई गालियाँ तो नश्तर है
कुतर्कों की चाशनी में डुबोया हुआ, बुझा हुआ तीर
और उसे बेहयाई से बरसाता हुआ सभ्य समाज
संस्कृति के अमर धागे को चटकाती
गाती रही प्रार्थनाएँ और फेकती रही
बेहयाई का खंजर।
स्वप्न उसका भी था संबंधों को प्रगाढ़ बनाना
लेकिन तुम्हारे नियति में है जूठन खाना
अंतस की दुखती रगों में
चुभती हुई बेशर्म नजरों का डर नहीं है
बल्कि भूख की एक असह्य पीड़ा है
छल से फेंके गए भाले को झेलता
निश्चय ही वह एक असभ्य क्रीड़ा है।
स्मृति में बेगार ढोते, करुणा का फंदा है
शरीर रेगनी के अनगिनत कांटों से बिंधे हुए
सहमे विचारों में, जलती हुई धरती
जिसपर चलते हुए पाँव में फफोले पड़े हैं
रोना, कलपना, गिड़गिड़ाना
बेजान शरीर को लहराना
हमारा यथार्थ है,
मृतकाय जीवन की अभिव्यक्ति
काँटों पर मुसक बाँध कर सुलाया जाना
तिसपर फोकस करती ढीठ आँखें
हमारी याचना की दम तोड़ती शक्ति है।
तुम्हारा तर्क है, हमें जीने नहीं दोगे
हम मरकर भी जी उठेंगे बार-बार
सामना करेंगे तुम्हारा
हर अमानुषिक प्रहार।
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७.योजना बना है
एक यतीम का दुःख सस्ता है
एक आलीशान अट्हास से
एक भूखे पेट का निवाला बहुत महँगा है
सलीब पर टँगे हुए
सदियों से जगे हुए
बिछुड़ी हुई हड्डियों का कोरस गाते
अपने ही संघर्ष से ठगे हुए
अट्टालिकाओं में ईश्वर का वास है
रसीद कटाओ, पावती ले जाओ
संसद भवन में बहस चल रही है,
आश्वासन दे रहा है भाग्य विधाता
महँगाई कमेगी, पहले खामोश हो जाओ
योजना बना है
दुर्दिन में तुम उपवास रखो
वह स्वर्ग सुख में अघाता
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८.आश्वासन बीमार लोकतंत्र की औषधि है
उसकी नजरें भी नफ़रत करती है
बुद्बुदाहट और पैनी
इन्द्रियाँ और होती है नुकीली
वह अपनी संवेदनाओं के लिए लड़ता है
अपने बर्बाद हो चुके फ़सल पर
ईश्वर को कोसता है, सत्ता को गरियाता है
अधजले गोईठे की तरह
अपनी बदरंग हुई जिंदगी में
थोड़ा और राख पोतता है
तब वह पगड़ंडी पर नहीं
प्रश्नों के नोक पर चलता है
उतर में पहले फटकार मिलता है
फिर आधी संतावना
एक डेंग चलकर आधा खींचता हुआ
शक के भींगे उपले से उठता हुआ धुंआ
छल के चूल्हे से उठता है
मन में टहलती उम्मीद
कपटी चोट से लहूलुहान होता है
उसके सारे प्रश्न प्रभावहीन हो जाते हैं
आश्वासन बीमार लोकतंत्र की औषधि है।
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९.व्याकुल प्रश्न
हप्ते दिन की जली बासी रोटी
जब भुख का निवाला बनता है
तब निर्धारित करता है
दीनता की व्यथा
गरीब तय करता है करुण कथा…
फूटे थाली मे पनियाइल दाल या
नून-मिरच मे सानता भात
और तप्त होता है फटे हाल इंसान की आत्मा
फ़टे हुए व्यार और कांटे से बिंधे पैर की पीड़ा को
एक चरवाहा ज्यादा बेहतर बताएगा
और रुग्ण आँखों से जख्मो को सहलाएगा
एक मुश्किल चढ़ाई चढ़ती हुई स्त्री
बेहतर जानती है,
तड़फड़ाती हुई सुरक्षित उतर जाना
भीतर की उबलती आग पर
कोई यूँ पानी डाल देगा
और वह कातर नेत्रों से ताकता
यूँ बला को टाल देगा
सरकार को कोसते,
अपनी दीनता को भोगते
बंजर खेत मे कराहता किसान
फ़सल की बर्बादी और
बर्बादी की आबादी पर
टहलता है मुदत से
गुम हो गई मुस्कान पर
व्याकुल प्रश्न पलता है।
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१०. उसका जागना
मेरे हृदय में
उस त्रासदी की गूँज है
जिसे भूख से बिलबिलाते
अपना भविष्य खाते
व्यवस्था की सड़ान्ध से आघाते
भोगा है मेरे पूर्वजों ने
उसकी कायर चुपियों पर,
मासूमियत से खिलखिलाते बेटियों पर
तुम्हारी बर्बरता का पौधा लहलहाया था,
और उदार उर्बरकों ने
स्वेद-खून बहाया था
मेरे हाथ में बर्बाद हो चुका भविष्य है
मै वर्तमान का ओजस्वी नया नरक
सामंती विचारों, सिपहसलारों, नरेशों,
खंडित हो चुके देशों, आओ
मै एक बजबजाता हुआ स्वर्ग दूंगा
सदियों से सोया ये सर्वहारा समाज…
नींद में ऐसे स्वप्न को देखता
कुलबुलाता जा रहा और
एक ऐसे सवेरे का इंतजार करता आ रहा है
जहाँ तुम्हारे साम्राज्य का शोकगीत लिखा जाएगा
पूस की ठिठुरती हुई रात में
एक कृषक का
खेत में लहराती विचारधारा
उसके सामने दण्डवत करता
अलाव जलाता
उसे अपने तन की गर्मी दे रहा है
उसका जागना रोज का जागना नहीं, बल्कि
एक युग का जागना है
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११. हर बार जन्म लूँगा
मेरा देह बंदी है
लेकिन मेरे विचार नहीं
एक दिन स्वप्नों की उड़ान लेकर
आऊँगा, बिल्कुल आजाद परिंदो की तरह
मै अपनी सड़कों पर लौटूँगा,
पत्थर उछालूँगा,
बिना किसी खौफ के
तुम्हारे दैत्याकर दरवाजे को तोड़ दूँगा
उसमें मै स्वयं को छिपाते
कुछ लोगों को उकसाऊँगा
अपनी स्वतंत्रता के विरुद्ध
कुछ लोग मुझे पीटेंगे
मै कुछ लोगों से चार-चार हाथ हो जाऊँगा
एक चौराहे पर खड़ा मै
भीड़ को ललकारता
अचानक किसी भीड़ में शामिल हो जाऊँगा
कुछ लोग मेरी आजादी को
बेहद ताज़ी खबर की तरह पढ़ेंगे
और मै-
तुम्हारे कुत्सित विचारों की दीवार ढाहकर
तुम्हारी क्रूरता की जबड़ों में हाथ डालकर
चीर दूँगा तुम्हारा आत्मालाप
तुम्हारी दृष्टता का कोरस
तुम खुद को श्रेष्ठ बताते
जितनी हत्याएँ करोगे
मै अपनी मुक्त कविता में हर बार जन्म लूँगा।
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१२.सर्वहारा एकजुट हो रहे हैं
मैं किसी और का भरोसा हूँ
निःसंदेह, किसी और का खोया हुआ विश्वास!
मात्र मेरी उपस्थिति भर से
कोई अपना स्वार्थ साध लेता है
लगा ही देता है-
छल की सुनहली छलाँग
और मै बड़ी तन्मयता से देखता हूँ
अपना बर्बाद हो चुका उपवन
मै स्वयं का यथार्थ भी नहीं हूँ
मै तो हूँ
किसी और का फूटता हुआ प्रभात
महल के ऐश्वर्य सुख के लिए
मैनें कोई प्रार्थना नहीं किया था
मै किसी और प्रयोजन के लिए
तुम्हारे स्वर्ग के दरवाजे तक आया हूँ
मुझे इसी तरह विस्फोटक लगाना है
सर्वहारा एकजुट हो रहे हैं
संसद की कार्यवाही यों ही चलने दो
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