प्राणेंद्र नाथ मिश्रा की कवितायें
१. जब जब प्रणाम करती हूं मैं
गुरुजन देते आशीष सभी,
सौभाग्य तुम्हारा बना रहे
उस पर ना आए आंच कभी।
सौभाग्य मेरा यदि तुमसे है
तो मैं भी तुम्हारे जीवन में,
सौभाग्य तुम्हारा बन पाई
परिणय के पावन बंधन में ?
मेरा अस्तित्व कहां ? बोलो …!
क्या कभी सजा पाए तन में
तुम मेरे नाम का एक चिन्ह?
जिस तरह मेरे तन से लिपटे
अंकित होते ये भिन्न भिन्न ।
मेरे शरीर पर लिपटी हुई
हल्दी ये तुम्हारे नाम की है,
हाथों में रची, इंगित करती
मेहंदी ये तुम्हारे नाम की है।
केशों के बीच सेविका सी
यह मांग पराजित है जिससे
सम्राट सदृश सिन्दूर वहां
रहता है विराजित, तो तुमसे।
मेरे कपाल पर, त्राटक सी
रक्तिम बिंदी, चिन्हित तुमसे
झूलता हृदय पे कंठहार
यह मंगल सूत्र, विदित तुमसे।
मेरी नाक भेद, दोलित करती
यह नथ भी तुम्हारे नाम की है
चूड़ी, पायल, बिछिया तुमसे
मेरी काया तुमसे पहचान की है।
चिर सधवा का आशीष मुझे
मिलता है तुम्हारे नाम पे ही
और करवाचौथ मैं करती हूं
दीर्घायु तुम्हारे नाम पे ही।
नौ मास कोख में रखा जिसे
संतान, तुम्हारे नाम की है,
मेरा गोत्र नहीं, मेरी जाति नहीं
जो कुछ है, पति के नाम से है।
मेरा अस्तित्व कहां ? बोलो ….!
बन कर विवाहिता सब कुछ ही
मेरा तुमसे चिन्हित होता,
तुम भी तो विवाहित हो मुझसे
तुममें मेरा, क्या अंकित होता?
तुम भी तो विवाहित हो मुझसे
तुममें मेरा क्या अंकित होता ?
मेरा अस्तित्व कहां? बोलो….!
2.कौन हो ? बोलो… हे अदृश्य!
तुम निशा विहीन चंद्रमा सी
दिखती तो नहीं पर, आसपास,
क्यों खेल रही हो व्याकुल कर
पुलकित करके, देकर आभास?
तुम सावन की हो प्रथम बूंद
या मुक्त पवन की लोरी हो,
तारों को छूकर आती हुई
या चंद्रप्रभा की गोरी हो?
कल्पना लोक मे बैठा मैं
चहुं ओर देखता हूं तुमको,
तुम नीर बनी बह जाती हो
छूकरके निमिष भर ही मुझको।
हो समा रहे सांसों के सदृश
फिर क्यों विलीन हो जाते हो ?
छू कर के प्राण, बोलो.. अदृश्य!
कैसी भाषा समझते हो ?
मैं प्रेम पाश मे बंध करके
विह्वल होता, हे आनंदिता!
निर्झर कर दो अब प्रणय – वृष्टि
बुझ जाए प्रेम की प्रणय – चिता!
****
3. कुछ ऐसा दर्पण दे ईश्वर !
तन दिखा दिया तूने मुझको
मन दिखा नहीं पर, हे दर्पण !
मत मूक खड़ा रह, यों समक्ष
मुझको दिखला, मेरा अंतर्मन.
देखूँ चिंतन की विषधारा
देखूँ अपने कलुषित विचार,
कुछ ऐसा दर्पण दे ईश्वर !
देखूँ अंतर्मन बार बार ….
देखूँ मैं अपने विगत कर्म
देखूँ तामस पथ के पत्थर
देखूँ इतिहास मैं पापों का
देखूँ विश भरा हुआ गट्ठर।
मेरे जीवन की भाषा को
मैं खुद ही समझ नही पाया
जो सिखलाया औरों ने हमे
जीवन भर उसको दोहराया ।
पढने दे ब्रह्म का लेखन भी
अब पढने दे अपना जीवन
मैं अंतर्मन मे झाँक सकूँ
दे ईश्वर! दे ऐसा दर्पण ।
मैं मूक, सामने खड़ा हुआ
कोई गीत सुना, दर्पण! मुझको
प्रतिबिंब बना, मत स्थिर रह
अब गले लगा, दर्पण!मुझको ।
संवेदना दिखाता क्यों मेरी?
प्रतिबिंबित कर, मेरा अंतर्मन
मत चिढ़ा, मेरी विह्वलता को
चेहरा न दिखा, मुझको दर्पण।
जिस तरह समाया मै तुझमे?
अस्तित्व मेरा, आभास है बस
मै हटा, तो तूने मिटा दिया
मत दे धोखा, दर्पण! मै बेबस ।
दर्पण! तू मन की पर्त हटा
प्रतिभाषित कर कोई चित्र सरल
ले आ प्रियतम, स्थापित कर
या शून्य दिखा, दर्पण! रे विरल!
कितना कलुषित अंदर मेरे
यद्यपि उज्ज्वल है मेरा तन ?
कुछ ऐसा दर्पण दे ईश्वर,
मैं देखूँ अपना अन्तर्मन…….
****
४. हिन्दी गजल
मैं अक्षर बन चिर युवा रहूँ, मन्त्रों का द्वार बना दो तुम,
हम बंधे बंधे से साथ चलें, मुझे भागी दार बना लो तुम…
जीवन की सारी उपलब्धि, कैसे रखोगे एकाकी,
तुमको संभाल कर मैं रखूँ, मेरे मन में जगह बना लो तुम…
कोई मुक्त नहीं है दुनिया में, ईश्वर, भोगी या संन्यासी,
प्रिय ! कैसे मुक्त रह सकोगे, आकर समीप समझा दो तुम..
सीमित विवेक, वैचारिकता, इनसे कितना, क्या पाओगे ?
यह ह्रदय असीमित, रस-सागर, इसमें बस खुद को डुबा लो तुम…
छोड़ो आकांक्षा की छाया, उपजाओ मन में इच्छाएं,
यह सृष्टि प्रेम की अनुयायी, कुछ प्रणय-भाव फैला दो तुम…
किसने खोया, किसने पाया, जाते हो तो जाओ लेकिन,
यदि टीस उठे अंतर्मन में, दो आंसू बस ढलका दो तुम….
मैं अक्षर बन चिर युवा रहूँ, मन्त्रों का द्वार बना दो तुम,
हम बंधे बंधे से साथ चलें, मुझे भागी दार बना लो तुम…
–
५.नहीं प्रतीक्षा चिट्ठी की
हाथों से लिखे संदेश नहीं,
छू सके हृदय जो, स्याही से
ऐसा कोई परिवेश नहीं।
दरवाज़े पे लटकी पत्र पेटी
को देखने का रोमांच नहीं,
द्रुत गति से चलती दुनिया मे
संवेदना की कोई आंच नहीं।
खबरें आती हैं जाती हैं
घुल मिल जाती हैं कुछ खबरें
एक ग्राह्य नहीं हो पाता है
तब तक हैं दूसरी पर नज़रें।
स्पर्श नहीं इस द्रुत गति मे
नहीं गंध, लिखावट मे कोई,
आकर्षण हीन शब्द सारे
भावना यहाँ सोई सोई।
चिट्ठी अन्तर्मन की भाषा
अंतर मे छिपा व्यक्तित्व है यह,
संबंध हमारे बीच का है
संवेदन सेतु का तत्व है यह।
खो गयी कहीं स्मृतियों मे
फिर आज तुम्हारा पत्र मिला,
फिर काल स्मृति के हाथों मे
बीते इतिहास का चित्र मिला।
बस, एक पंक्ति ही लिखी मिली
‘कैसे हो तुम ? कब आओगे ?”
पढ़ कर मन तृप्त हुआ, बोला
फिर से पढ़ कर दोहराओगे??
कई बार पढ़ा उस पंक्ति को मैं
उतरा, जीवन के प्रथम प्रहर,
जिस जगह लिखे थे मूक शब्द
जिस जगह, एक या दो ही अक्षर।
परिपार्श्व मे तुमको फिर देखा
देखा आह्लादित काल खंड
देखा चरितार्थ हुये कुछ पल
देखा सपनों का महा झुंड।
वेदना बोध अपनी देखा,
देखा गिरती तरंग तुम मे,
देखा अभ्यंतर की गाथा
देखा बिखरी आशा हम मे।
चिट्ठी मे मिलन आस देखी
देखी विषमय विषाद रेखा,
उस पंक्ति मे देखी विरह पीर
अक्षर अक्षर तुमको देखा।
तुम अब भी लिख रही हो जैसे
मेरे मन मे आस जगाए हुये
मैं तुम्हें पढ़ रहा बार बार
जीवन गति अपनी भुलाए हुये।
चिट्ठी मे मिले दोनों के स्वर
खो गए जो फिर कालांतर मे,
पर अब भी गाथा दोनों की
है छिपी हुयी शब्दांतर मे।
हैं बीत गए कई दशक मगर
चिट्ठी में महक तुम्हारी है
हर अक्षर प्रणय निवेदन है
लिपि में अभ्यर्थना हमारी है।
कागज़ के पुराने टुकड़े को
रखता हूं अब भी लिफाफे में
रह रह के देखता हूं इसको
जैसे तुम खिड़की के झापे में।
हो गई पुरानी स्याही पर
संबंध दिखाती चिरंजीव
पीले पड़ते पन्ने में छिपी
युग युग से प्रतीक्षित प्रणय नीव।
दो बूंद गिरे आंखों से जो
वे फैल गए हैं दूर दूर
तुम उनमें तैरती हो अब भी
छाया दिख जाती है सुदूर।
क्या जाने कितना है जीवन
जीवन कणिकाएँ गिनी हुईं,
चिट्ठी मे भरी है अभिलाषा
कुछ बिखरी सी, कुछ चुनी हुयी।
जैसे पद्म पत्र पर शिशिर बिन्दु
जीवन की गति डगमग करती,
आशाएँ, विह्वल, बेसुध हो
तूलिका से अपने रंग भरतीं।
उन रंगों मे से एक रंग
चिट्ठी मे निखर आया फिर से,
जब जब मैं तुमको पढ़ता हूँ
आती हो सावन सी घिर के।
मेरे जीवन की यह है अमोल
चिट्ठी जो तुम्हारी पड़ी हुई
छूने से कांपते अब भी हाथ
जैसे, तुम हो सामने खड़ी हुई।
पहली है, आखिरी भी चिट्ठी
मेरे स्वर्णिम पल की निशानी है
दो चार लिखे हैं जो अक्षर
मेरे जीवन की वो कहानी है।
यह शेष काल का संचय है
जो तुलसीदल तक जाएगा
अवरोही सांसों के संग संग
हर अक्षर मन दोहराएगा।
*****
६.मुझे लंबी उम्र न दे ईश्वर!
अपनों के बीच रहूं ज़िंदा,
सबकी देखूँ अंतिम साँसें
दुःख इससे और बड़ा क्या है
बेटों को कन्धों पर थामे..?
मैं उनका दाह करूं जिनको
था मैंने खिलाया, अंकों भर..
यह सोच, सिहर जाता हूँ मै,…
मुझे लम्बी उम्र न दे ईश्वर !
माथे से पांवों तक फैली
रेतीली सिलवट के विकार,
लेकर अकर्मण्य अपनी काया
क्यों बनूँ धरा पर एक भार..
मैं त्यक्त, त्याज्य और अनवांछित
क्यों पडा रहूं इक कोने पर,
मरने की इच्छा रख कर भी
मैं बेबस हो, क्यों रहूं अमर?
,,,,,….मुझे लम्बी उम्र न दे ईश्वर
****
७. पिता
मैं पिता, सृष्टि का प्रथम पुरुष
मैं बीज हूं संसृति उपवन का
मैं परमपिता का पुत्र, मनु
मैं कारक मानव चेतन का।
मेरा पौरुष है महावंश
मेरी चेतनता आकाश छोर
मैं शांत, गहन भावों से भरा
पीड़ा अपनी लेता हूं मोड़।
मेरा शैशव, मेरी बाहों में
कन्या में मेरी मां रहती है
मेरा रक्त हिमालय सा दृढ़ है
भावना में गंगा बहती है।
सागर मंथन, अंतस्थल में
मेरे मन में मचाता हाहाकार
पर सबको दबा कर मन ही मन
मैं नहीं दिखाता हूं विकार।
जब स्नेह “निराला” हो पीड़ित
कविता में आंसू बहते हैं
अक्षर “सरोज स्मृति” में ढल
नीरवी वेदना कहते हैं।
कितनी नदियां, कितने सागर
कर पार, पिता कहलाया हूं
मेरी बाहों में जो है झूल रहा
वह अपना शैशव लाया हूं।
संवेदन सीमा, अंतहीन
मेरा धैर्य है छूता अंतरिक्ष
परिवार का हूं मैं मूल बीज
मेरी छाया, जैसे अटल वृक्ष।
मत करो मेरी अनुशंसा तुम
मत मेरी प्रशंसा भी करना,
पर जब भी नीरव, कर्मयुक्त
मिले कोई, नाम पिता रखना।
है पिता स्वप्न, परिवार रहे
परिपोषित, सुख, आनंद भरा
कोई वेग नहीं, उद्वेग नहीं
कर्मठ है पिता, नहीं कभी मरा।
मुझे पिता करो ऐसा, ईश्वर!
एक अच्छे पिता के गुण देना
हो प्रेम स्नेह, पोषण क्षमता
परिवारिक बंधन भर देना।
लाचार पिता मत करो मुझे
चाहे पुत्रहीन मुझको रखना
संतान न हो ऐसी मेरी
तिल तिल कर मुझे पड़े मरना।
धृतराष्ट्र बनाओ मत मुझको
मत संतति दो मुझे सौ के पार
मत भाग्यहीन इतना करना
कंधों पे पड़े संतान भार।
मैं पिता बनूं दशरथ जैसा
जब हो बिछोह तब प्राण त्याग
हों राम लखन शत्रुघ्न भरत
जैसे संतान तो बढ़े भाग।
मैं अपने पिता सदृश होऊं
मुझे मेरे पिता के गुण देना
उत्सर्गित जीवन हो ईश्वर!
पितृत्व समाहित कर देना।
कर्तव्य परायण रखना मुझे
मर्यादा, पुरुष की सीमा हो
क्षमता विशाल और धैर्यवान
हो क्रोध अनल, पर धीमा हो।
उत्सर्गित हों जब मेरे प्राण
मेरे समक्ष हों लोग सभी
संतान सामने हो मेरी
तुलसी दल मुख में पड़े तभी।
***
८. तुम और मैं
तुम दिल्ली का हो शीशमहल, मैं जमुना की झोपड़पट्टी
तुम छोले भटूरे सी प्रिय हो, मैं बिहार की चोखा लिट्टी।
तुम राजनीति का राज पिये! मैं नीति में छिपा इति प्रियतम!
तुम स्वप्नसुंदरी पर्वत की, मैं लुप्त हुआ, हूं यति प्रियतम!
तुम हो रोलेक्स सी शानदार, मैं पिछले कल का एच एम टी
तुम एयरप्लेन परिचारिका हो, मैं गुड्स ट्रेन का हूं टी टी।
तुम शर्ट की पहली बटन जैसे,मैं सदरी भीतर अस्तर हूं
तुम बंगले की चमक धमक, मैं बाथरूम का पलस्तर हूं।
तुम जीभ लपलपाती नागिन की, मैं टूटा दांत हूं बूढ़े का
तुम चपल चंद्रिका चारु प्रिये! मैं रस्सी,टूटे मोढ़े का।
तुम चारूलता, चंचल चक्षु, मैं नेताओं की तोंद, प्रिये!
तुम स्वाद पिज़्ज़ा में चिपका हुआ, मैं नीम पेड़ की गोंद प्रिये!
तुम सदाबहार हो रेखा सी, मैं बूढ़ा ए के हंगल सा
तुम स्वर्ण विजेता हिमा दास, मैं जंतर मंतर दंगल सा।
तुम पद्म कमलिनी खिली हुई, मैं कीचड़ फैला यहां वहां
फिर भी तुम मुझमें खिली प्रिये! चाहे तुम जाओ जहां तहां।
तुम गणित का धन हो, ऋण मैं हूं तुम गुणा, भाग का शेष हूं मैं
तुम सागर सी विस्तार बहुत, तुम्हें थामे धरावशेष हूं मैं।
****
९. किस ओर,,,,?
किस सागर में आई उमंग?
उठ गई भयानक यह तरंग
हे नाविक! तुम क्यों हो अदृश्य
क्यों दूर दूर, मरुभूमि रंग?
गतिरोध बढ़ रहा, त्रासित है
यह भुवन भूमि, यह वसुंधरा
अवसाद हो रहा सीमाहीन
मानव जीवन है, ध्वंस भरा।
कैसा ये महा उत्कर्ष नृत्य?
पथ पथ पे धूम संघर्ष की है
वेदना के स्वर, क्रंदन, विलाप
यह ध्वनि तो राक्षस-हर्ष की है।
हो गई निरुत्तर, नैतिकता
केवल विवाद का महानाद
आघात यहां, वहां प्रत्याघात
क्या प्रलय का हो रहा शंखनाद
आधार हीन धरती की गति
प्रातः में ही संध्या देखा
हो रहे विचारक दृष्टि हीन
क्या टूट रही सृष्टि रेखा?
****
१०. दान
हो स्वर्णदान या रक्तदान
है कन्यादान, बड़ा सबसे
पुत्री का पिता तो दाता है
पुत्रों के पिता एक याचक से।
यह दान है, सृष्टि सृजनकर्ता
ब्रह्मा की चाह से भरा हुआ
विष्णु के पालन पोषण से
शिव शिव कह कर के जरा हुआ
तीनों देवों का कर्म लिए
शुभ मुहूर्त में हो कन्यादान
हो अग्नि साक्षी, पावनता
संसृति का हो, महाकल्याण।
****
– प्राणेंद्र नाथ मिश्रा / प . बंगाल
कवि का परिचय :
नाम: प्राणेंद्र नाथ मिश्र
जन्म : उत्तर प्रदेश, प्रयाग राज में बाल्यकाल एवं शिक्षा, अभी पश्चिम बंगाल, कोलकाता में रह रहे हैं।
शिक्षा: बी ई ( मैकेनिकल) MNNIT इलाहाबाद से,,,, एमबीए
कार्यक्षेत्र: 35 वर्षों तक विमानों के रखरखाव के बाद एयर इंडिया पूर्वी क्षेत्र से मुख्य प्रबंधक के पद से सेवा निवृत्त।
लेखन: पांच काव्य पुस्तकें,,,, अपने आस पास, तुमसे, मृत्यु दर्शन, महाप्रलाप एवं कृष्ण – महाभारत के बाद, प्रकाशित। अन्य पुस्तकें,,,दुर्गा तेरे रूप, हे मृत्यु! मुझे क्या मारोगे? तथा चौथा प्रहर प्रकाशन के लिए अग्रसर।
वैमानिकी से संबंधित कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं,,,, कई पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित,,,, अंडमान पर कविता और एक कहानी, हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा एक पुस्तक में प्रवेश पा चुकी है।
बच्चों की अनेक कविताएं, जिसमे एक कविता कक्षा 2 के पाठ्य पुस्तक के लिए चुनी गई है।
वन संरक्षण अंडमान से स्लोगन के लिए प्रमाण पत्र और पुरस्कार।
ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न से प्रसारित एफ एम चैनल पर कई कविताओं का पाठ।
दो अंग्रेज़ी पुस्तक का हिंदी में अनुवाद,,,, नए देवता तथा अनुपस्थित पिता।
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Rachana
अच्छी कवितायें . जिंदगी की कश्मकश को गहराई से चित्रीत किया है।
VINAY KUMAR
Mishra Sir’s poetry is simply superb which goes very deep as well as goes very high.
I feel privileged that he is our literary guide and Guru.
I wish he keeps writing such nice poetry and may God give him long life and capability to keep writing like this in future also.
Chandrakant babar
कागज की पुरानी तुकडो को…..